Sunday 11 October 2015

3 हाईकु



1)सुर्य ब्युंझिन्छ
काला वादल तोड्दै
हांस्छ हिमाल ।



2)'बाटो र मान्छे
बाढि बनेर बग्दा
तगारो तोडिन्छ ।'

3)फर्किन्न अब 
भेट्नै चाहेको भए  
 चिहान कुर्नु  । 

Wednesday 15 July 2015

New Gokul Farm Yoga Retreat

Yoga, meditation, Ayurveda, Sanskrit Teaching, Sacred Camp fire, Bush walking and the organic meal prepared with love. !such a fabulous time.
Thank you all participants, Kaliya Prabhu , Anand and all new Gokul Farm Family ...! for helping to make my retreat succesful .~Acharya




















माधुर्य चिन्तन !

हिन्दी ज्ञानमाला (Wisdom In Hindi )




हिन्दी ज्ञानमाला (Wisdom In Hindi )
चौपाई 

  • नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
  • आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
  • सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।।
  • सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
  • सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
  • सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।
  • बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
  • एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।

  • दोहा
  • रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार।।
  • धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।271।।

  • चौपाई
  • लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
  • का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें।।
  • छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
  • बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
  • बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
  • बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।
  • भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
  • सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।

  • दोहा
  • मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
  • गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।272।।
  • ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
  • चौपाई : 
  • * नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
  • आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥1॥ 
  • भावार्थ:-हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-॥1॥ 

“My lord, it must be some one of your servants who has broken the bow of Siva. What is your command? Why not tell me?” At this time the furious sage was all the more incensed, and said, 


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* सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥2॥
भावार्थ:-सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है॥2॥ 
“A servant is he who does service; having played the role of an enemy, one should give battle, Listen. O Rama; whoever has broken Siva’s bow is my enemy no less than the thousand armed Kartavirya. 

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* सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥3॥
भावार्थ:-वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले-॥3॥ 
Let him stand apart, leaving this assembly; or less everyone of these kings shall be slain.” Hearing the sage’s words Laksmana smiled and said insulting Parasurama (the wielder of an axe), 

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* बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥4॥ 
भावार्थ:-हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे॥4॥ 
“I have broken many a small bow in my childhood; but you never grew so angry, my lord. Why should you be so fond of this particular bow? At this the Chief of Bhrgu’s race burst out a fury:-

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दोहा : 
* रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥ 
भावार्थ:-अरे राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥271॥

O young prince, being in the grip of death you have no control over your speech. Would you compare to a small bow the mighty bow of Siva, that is known throughout the world.
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चौपाई : 
* लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥1॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था॥1॥ 
Said Laksmana with a smile, “Listen, holy Sir: to my mind all bows are alike. What gain or loss can there be in the breaking of a worn-out-bow? Sri Rama mistook it for a new one, 

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* छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥2॥
भावार्थ:-फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना॥2॥ 
and at His very touch it broke in two; the Lord of Raghus, therefore, was not to blame for it either. Why, then, be angry, reverend sir, for no cause?” Casting a glance at his axe, Parasurama replied, “O foolish child, have you never heard of my temper? 

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* बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥
भावार्थ:-मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ॥3॥ 
I slay you not because, as I say, you are a child yet; do you take me for a mere anchorite, O dullard? I have been a celibate from my very boyhood, but also an irascible one; and I am known throughout the world as a sworn enemy of the Ksatriya race. 

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* भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥4॥
भावार्थ:-अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख!॥4॥ 
By the might of my arm I made the earth kingless and bestowed it time after time upon the Brahmans. Look at this axe, which lopped off the arms of Sahasrabahu (the thousand armed Kartavirya), O youthful prince.
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दोहा : 
* मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥272॥
भावार्थ:-अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है॥272॥ 
“Do not bring woe to your parents, O princely lad, My most cruel axe has exterminated even unborn offspring in the womb.”

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दाष कहने से निराभिमानता देखाता है। 
जो अपनेको कीर्ति करनेको वावजुत भि निचे राख्ता है वास्तवमे वो निचा पन नहि सबसे उचा पन है। 
युद्दसे नहि शब्द वाण से हरानेके लिए ए 'नाथ ' शब्द प्रयुक्त्त कियागया है। 'नाथ ' और दाष ' एक दुस्रेका पुरक शब्द है। 
नाथ '=इश्वर है। अभीमान जीवका धर्म है। इश्वर निरभिमान है। 'जीव धर्म अहामिति अभीमाना '(११६/७ ) 
धनुष तोडनेवाला 'एक ' एक =अद्वितीय  ,अद्वीतीय है, जो वहि नाथ का रुप है। 
नाथ-दाष शब्द से प्रभु गुप्त रुप से श्री परशु रामसे अपना दुस्रा स्वरुप को संकेत देते है , लेकिन क्रोध के कारण उनको ए ज्ञात नहि हो ता है। 
क्रोध एक वेहोसि पन है ,वेहोमे अपना स्वरुप भुल जाते है। 
राजा जनकने खुलस्त नहि बताया ,सबको बचावट मी लगे  और  जानकी जी स्वयं भयभित है , इस्सिलिए श्रीराम जी कहते है। किसि दाष ने नहि  किया है, न कि विरोधि ने किया !
दाष कि पराक्रम स्वामिजीके लिए गौरव कि वात होति है। और स्वमिजिका आज्ञा विना दाष य काम नहि करेगा । 
श्री राम जिका ए जवाफ था क्यु कि पहले परशुरामजी ने  पहले जान बुझके पुछा था कि किसने ए धनु तोडा ।   
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जो धनु  तोडता है व सामान्य नहि हो सक्ता ! ईसिलिए उनके धनु तोडनेवला कोहि बडा सत्रु है! जिसका 'सहसबाहु 'है!
सहसबाहु वाला परशुरामजीका पिता जमदग्नी का शत्रु कर्तुवीर्य का था जिसने कामधेनु हरन किया था । 
जब दोषि समाज से वहाँ नहि आया तो सारा राजा का मृत्यु होगि, तो सारा राजा दोषि को पहचान करादिजिए । 
श्री प्रज्ञानन्दस्वामी 'एकके अपराधके लिए सब राजाओका मारनेका धम्कि देनेमें सरलताकि अभाव है। 
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मुनिके वातमे हिंसा नहि नहि, क्रोध नहि, अभिमान नहि होना चहिए ईसिलिए , मुनिको कोहि शत्रु नहि होता । 
जो बात परशुरामसे आया है , वो मुनिके भेषमे  नहि हो सक्ता । ईसिलिए श्रीराम जीका अपमान लखन जीको नहि सह जाया .
जिसका धनुषथा उसने सम्हालके  नहि राख सके , और पुराना धनु को तोडदिया क्या   फरक पडा। 
यहाँ पर धिव धनुका लघुता दिखारहेहै' छुवत टुट रघुपतिहु न दोसु '(२७२२) । 
गोसाई -गो =इन्द्रिय ,साई =स्वामि, इन्द्रियकामालिक , इन्द्रियको बसमे राख्ने वाला , ईसमे कुछ ब्यङ है, मुनि इन्द्रिय के मालिक है तो क्रोके दाष नहि होइ सक्ते । 


जब  जालन्धर के मारा था शिव जीने बहुत धनु मनोरम नदिके किनारमे राख दिया था , राख्ने वाला परशुरामा जी थे और लखन जी नदी के किनारमे खेल्ने जा रहे थे । खेल मे हरदम हरदम लखन जी उनका धनु तोड देते थे । ईसीका उनोने याद दिलाया । =सन्दर्भ मयंककार -मानस पियुस खन्ड ३ /६०३
क्षत्रिय और देवताके धनु से धर्ति भारमे पड रहता , शेष नाग पुत्र बने , धर्ति माता बनिन्, धर्तिको आश्रयका पुकार , पुत्रको चन्चलताको माफि , दिया  और नागने देवता और मनुस्यका सब धनु तोडा , बादमे , क्रोद नहि आशिर्वाद देकर विदा दिया । -
भ्रिगुकुल क्रोधिकुल है-    भ्रिगु ने परीक्ष्या स्वरुप बिष्णु के छातीमे लात मारा , नारी को शरपर चक्र गिराया तब शाप मिला था । -क्रोध करके कुलकि मर्यादा रखते है। 
जव धनुमे 'मोह ' ममत्व देखाया , ब्यङ्ग करके बोला 'यहि धनु ममता ' केही हेतू ' -१७१- १ बालकाण्ड ।  
ममता =अज्ञानता । मुनि अज्ञानता एक जगह नहि रहता । जैसा आग और पानी एक जगह नहि रह्ते दिन और रात एक साथ नहि रहता । ईसिलिए लखन  जी हसते है और ब्यङ करते है। 
क्षति और लाभ मे , जोडना और  टुटने मे कोहि दु:ख नहि आता -ज्ञानिको । गीता अध्याय १८ । 
धनुष तोड्नेमे कोहि दोश नहि-छुवत टुट रघुपति न दोसु '। 
ज्यादा पेरिश्रम  कर्ना नहि पडा, । लखनजी किसने धनु तोडा नाम खोल्देते है। ईसमे श्रीरामके वीरताके याद दिलाए जाते है। 
सठ =दुस्रेका सम्मान नहि कर्ण सठ पन है। जैसे रावण ने नि:शंक होनेका कारण श्रीहनुमानजीको शठ कहाँ था । 
परशुराम जी वीरताके बखान करते है कि ' मे बाल ब्रह्मचारि है। ब्रम्हचारि मे सचमुझ विशाल बल होता है। जैसा हनुमानजी थे।    
……
क्षत्रियके विनास राज्य के लोभ से नहि किया अगर किया हो तो में ब्राम्हणको किउं बांटता -परशुराम। 
पुत्रके मृत्युमे माता पिता के बहुत चिन्ता होता है ईसिलिए माता पिता के सोच बोल रहे है। इक्किस बार क्षत्रिय को नाश किया है ईसका अर्थ गर्भ से भि क्षत्रिय को मार्ने मे पिछे नहि पढता ।  
Bhagwat Gita Chapter 4 Part 1

मूल श्लोकः श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।
Hindi Translation By Swami Tejomayananda
।।4.1।। श्रीभगवान् ने कहा मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया) विवस्वान् ने मनु से कहा मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।।
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।4.1।।कर्मयोग जिसका उपाय है ऐसा जो यह संन्याससहित ज्ञाननिष्ठारूप योग पूर्वके दो अध्यायोंमें ( दूसरे और तीसरेमें ) कहा गया है जिसमें कि वेदका प्रवृत्तिधर्मरूप और निवृत्तिधर्मरूप दोनों प्रकारका सम्पूर्ण तात्पर्य आ जाता है आगे सारी गीतामें भी भगावन्को योग शब्दसे यही ( ज्ञानयोग ) विवक्षित है इसलिये वेदके अर्थको ( ज्ञानयोगमें ) परिसमाप्त यानी पूर्णरूपसे आ गया समझकर भगवान् वंशपरम्पराकथनसे उस ( ज्ञाननिष्ठारूप योग ) की स्तुति करते हैं श्रीभगवान् बोले जगत्प्रतिपालक क्षत्रियोंमें बल स्थापन करनेके लिये मैंने उक्त दो अध्यायोंमें कहे हुए इस योगको पहले सृष्टिके आदिकालमें सूर्यसे कहा था ( क्योंकि ) उस योगबलसे युक्त हुए क्षत्रिय ब्रह्मत्वकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं तथा ब्राह्मण और क्षत्रियोंका पालन ठीक तरह हो जानेपर ये दोनों सब जगत्का पालन अनायास कर सकते हैं। इस योगका फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठारूप योगका मोक्षरूप फल कभी नष्ट नहीं होता। उस सूर्यने यह योग अपने पुत्र मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बननेवाले इक्ष्वाकुसे कहा।

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda
4.1 In the beginning of creation, with a veiw to infusing vigour into the Ksatriyas who are the protectors of the world, aham, I; proktavan, imparted; imam, this; avyayam, imperishable; yogam, Yoga, presented in the (preceding) two chapters; vivasvate, to Vivasvan, the Sun. eing endowed with this power of Yoga, they would be able to protect the rahmana caste. The protection of the world becomes ensured when the rahmanas and the Ksatriyas are protected. It (this Yoga) is avyayam, imperishable, because its result is undecaying. For, the result-called Liberation-of this (Yoga), which is characterized by steadfastness in perfect Illumination, does not decay. And he, Vivasvan, praha, taught (this); manave, to Manu. Manu abravit, transmitted (this); iksvakave, to Iksvaku, his own son who was the first king. [First king of the Iksvaku dynasty, otherwise known as the Solar dynasty.] 

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Lecture Notes Balkand Doha 299 to 300  Gita 4.15-17
Tuesday 14th July 2015, Acharya Rajan Sharma, (M.A., MPA Vedic Astrology/Philosophy)


  • चौपाई :
  • * बाँधें बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
  • फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥1॥
  • भावार्थ:-शूरता का बाना धारण किए हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने घोड़ों को तरह-तरह की चालों से फेर रहे हैं और भेरी तथा नगाड़े की आवाज सुन-सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं॥1॥
  • * रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
  • चवँर चारु किंकिनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं॥2॥
  • भावार्थ:-सारथियों ने ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत विलक्षण बना दिया है। उनमें सुंदर चँवरलगे हैं और घंटियाँ सुंदर शब्द कर रही हैं। वे रथ इतने सुंदर हैं, मानो सूर्य के रथ की शोभा को छीने लेते हैं॥2॥
  • * सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
  • सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥3॥
  • भावार्थ:-अगणित श्यामवर्ण घोड़े थे। उनको सारथियों ने उन रथों में जोत दिया है, जो सभी देखने में सुंदर और गहनों सेसजाए हुए सुशोभित हैं और जिन्हें देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं॥3॥
  • * जे जल चलहिं थलहि की नाईं। टाप न बूड़ बेग अधिकाईं॥
  • अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥4॥
  • भावार्थ:-जो जल पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। वेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती। अस्त्र-शस्त्र औरसब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया॥4॥
  • दोहा :
  • * चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
  • होत सगुन सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥
  • भावार्थ:-रथों पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी, जो जिस काम के लिए जाता है, सभी को सुंदर शकुन होतेहैं॥299॥
  • चौपाई :
  • * कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
  • चले मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥1।
  • भावार्थ:-श्रेष्ठ हाथियों पर सुंदर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजाई गई थीं, सो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटोंसे सुशोभित होकर (घंटे बजाते हुए) चले, मानो सावन के सुंदर बादलों के समूह (गरते हुए) जा रहे हों॥
  • * बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
  • तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृंदा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥2॥
  • भावार्थ:-सुंदर पालकियाँ, सुख से बैठने योग्य तामजान (जो कुर्सीनुमा होते हैं) और रथ आदि और भी अनेकों प्रकार कीसवारियाँ हैं। उन पर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढ़कर चले, मानो सब वेदों के छन्द ही शरीर धारण किए हुए हों॥2॥
  • * मागध सूत बंधि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
  • बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥3॥
  • भावार्थ:-मागध, सूत, भाट और गुण गाने वाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढ़कर चले। बहुत जातियों के खच्चर,ऊँट और बैल असंख्यों प्रकार की वस्तुएँ लाद-लादकर चले॥3॥
  • * कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
  • चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥4॥
  • भावार्थ:-कहार करोड़ों काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकार की इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णन कौन कर सकता है। सबसेवकों के समूह अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले॥4॥
  • दोहा :
  • * सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
  • कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥300॥
  • भावार्थ:-सबके हृदय में अपार हर्ष है और शरीर पुलक से भरे हैं। (सबको एक ही लालसा लगी है कि) हम श्री राम-लक्ष्मणदोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेंगे॥300॥
शब्दार्थ
बिरद =बाना , वेशविन्यास ।
गाढे =द्रिढ । पनव = ढोल ।
सावकरन =श्यामकर्ण ।
होते =यज्ञ के अग्नी से निकला हुवा घोडे के तरह सुन्दर ।

ü  वीर के घोडे विविध अलङ्कार युक्त्त मणी , वस्त्र, कपडा  से सुसज्जित होते है।
ü  जो मुनिके लिए और देख्ने वाले सबके लिए सकुन हुन्छ ।
ü  सब वारात बटुरने के बाहार खडा हुए हैं ।
जो जल पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। वेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती। अस्त्र-शस्त्र और सब साजसजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया


ü  युग अनुसार के सावारी साधनके महिमा सुनाया गया है। घोडे , हात्ती , रथ उशा समयका पारवहन साधन था ।
ü  टाप =घोडेके पैरका वह सबसे निचला भाग जो जमिनपर पडता है , और जिसमे नाखुन लगा रहा रहता है।

ü  जलमे -स्थलमे हर तरहमे रथी को रथ सवार कर चलाने कि  सीप होता है।
ü  घोडे जलमे पृथ्वी के तरह चल्ते है । रथि , सारथी ने साज सजाकर रथियो को बुलाया ।
ü  कलित +=सुन्दर ,सजी हुई ।
ü  अंबारी =हाथिके पीठपर रखनेका एक हौदा जिसके उपर एक छज्जेदार मण्डप होता है।
ü  बिराजी =बहुत शोभित । सिबिका =पालकि।
ü  राजी =समूह ।
ü  घण्टोंसे सुशोभित मतवाले हाथी चले मानो कि साउनअके सुन्दर बादलअोंके समुह जा रहे हैं ।

ü  हाथि , पालकि , तामझाम, विमान , आदिमें ब्राह्मण , मागध , सूत , बन्दी और गवैये सवार हुए है। सब विधानकि सवारीया माचले ।  

ü  ‘कभी रोता है कभि हस्ता है, जङ्गलमे जोगि बस्ता है।

ü  जो आनद सन्त  फकिर करे , ओ आनद नहीं अमिरिमे मे। “

कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
चले मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी
ü   

ü  बिप्रबर =यी बेदपाठी है , सबको वेद कण्ठस्थ है। श्री-राम लक्षमण देख्ने का वीर भाव से सव छल रहे है। 
ü  सवको निर्भय हर्ष था । सन्चय कर्ने का दिल हे तो त्याग्ने का दिल भी है। उसकी स्वामि है। 
ü  जीसने त्यागा है हकिकतमे वहि स्वामि , जो पकडकर बैठा है , दुनियाँ को ठोकर मारके नहिं छल सक्ता वहि स्वामी नहि । जैसाचांदिके गिलास साधुके हातमें ।

ü  तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार होवैसा करो

ü  ‘पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती’
ü  मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
ü  चरन कमल रज कहुं सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
ü   
ü  - श्रीराम ने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं है। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म जान लिया। तुम्हारे चरणकमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है। वह कहता है कि पहले पांवधुलवाओ, फिर नाव पर चढ़ाऊंगा। अयोध्या के राजकुमार केवट जैसे सामान्यजन का निहोरा कर रहे हैं। यह समाजकी व्यवस्था की अद्भुत घटना है।
ü   
ü  केवट चाहता है कि वह अयोध्या के राजकुमार को छुए। उनका सान्निध्य प्राप्त करें। उनके साथ नाव में बैठकर अपनाखोया हुआ सामाजिक अधिकार प्राप्त करें। अपने संपूर्ण जीवन की मजूरी का फल पा जाए। राम वह सब करते हैं,जैसा केवट चाहता है। उसके श्रम को पूरा मान-सम्मान देते हैं।
ü ü  उसके स्थान को समाज में ऊंचा करते हैं। राम की संघर्ष और विजय यात्रा में उसके दाय को बड़प्पन देते हैं। त्रेता केसंपूर्ण समाज में केवट की प्रतिष्ठा करते हैं। केवट भोईवंश का था तथा मल्लाह का काम करता था। केवट प्रभुश्रीराम का अनन्य भक्त था। केवट राम राज्य का प्रथम नागरिक बन जाता है। राम त्रेता युग की संपूर्ण समाजव्यवस्था के केंद्र में हैं, इसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं है।

Cast System in Ramayan –

·       •Ramayana was written by Valmiki, likely to be a Dalit. Mahabharata was written by Ved Vyasa - a fruit of intercaste marriage.

·       In Ramayana, the hero from a Kshatriya caste kills a villain from Brahmin caste. Importantly, the real heroes in both the epics were likely from the lower castes. In Ramayana, the dude who wins the most hearts is Hanuman, likely from tribal aborginals (and he was no monkey - Hanuman just means a person with a disfigured jaw). In Mahabharta, the dude who wins the minds isKrishna raised among cow herders.

·       In both Ramayana and Mahabharata, the adivasi Nishadas tribes find strong presence. In Ramayana, the tribesman Guha is treated by Rama as his own brother as Rama shares his life with him while crossing the Ganges. Guha's qualities are often celebrated by the fans of Ramayana. Another celebrated Nishada women is Shabari - who moves Rama with her devotion. In Mahabharata, the Nishada head Nala is extolled as an example of how a person should live.
साधारण  दिखने  वाले  लोग  ही  दुनिया  के  सबसे  अच्छे  लोग  होते  हैं : यही  वजह  है  कि  भगवान  ऐसे  बहुत  से  लोगोंका निर्माण करते हैं.
-Abraham Lincoln अब्राहम लिंकन

Verse 4.13 Jnana Yoga (Castes)
catur-varnyam maya srstam guna-karma-vibhagasah
tasya kartaram api mam viddhy akartaram avyayam

The divisions of humans according to their Gunas and Karmas, have been ascribed to Me; even then I am the non-doer and remember Me to be ever Changeless and Immutable.

“अति सर्वत्र  वर्जयेत .”

न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, अाकाश से बना है अौर इसी में मिल जायेगा। परन्तुअात्मा स्थिर है - फिर तुम क्या हो

विश्व के हर धर्म-ग्रन्थ से मनुष्य को अनेक लाभ मिलते है ,धर्मग्रंथो की रचना का अभिप्राय ही मानव जाति का कल्याण है किन्तु गीता के अनुसरण से जो मानव को विशिष्ट प्राप्ति होतीहै वह है
" श्रद्धा " ।
श्रीमद्भागवतगीता को गीतोपनिषद भी कहा जाता है. यह समग्र वैदिक ज्ञान का सार है. श्री द्वेपायन वेदव्यासश्रीमद्भागवतगीता ग्रन्थ के प्रणेता है. उनके द्वारा रचित “महाभारत” के अंतर्गत भीष्म पर्व के २५वे अध्याय से ४२ वे अध्यायतक १८ अध्यायों में गीता ग्रन्थ सम्पूर्ण हुआ है.
भगवन श्री कृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन को लक्ष्य बनाकर समग्र मानव जाति के कल्याण हेतु मूल्यवान सारगर्भित उपदेशोको प्रदान किया है.
दार्शनिक और विद्वत समाज का भी यह मानना है कि कठिन समय में बुद्धिबल से हृदयबल अधिक कारगर है ।
श्रद्धावान को अपने इष्ट अथवा प्रारब्ध पर अटूट विश्वास रहता है जबकि बुद्धिमान पराजय को भी एक विकल्प के रूप मेंमानकर सर्वदा भयमुक्त नहीं होता ।

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||

अर्थात् : ( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र !उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |
-        आपके विचार आपके जीवन का निर्माण करते हैं।  यहाँ संग्रह किये गए महान विचारकों के हज़ारों कथन आपकेजीवन में एक सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं.
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 Lecture Notes Balkand Doha 297 to 298  Gita 4.12-14


Tuesday 7th July 2015, Acharya Rajan Sharma, (M.A., MPA Vedic Astrology/Philosophy)


चौपाई :
* जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥1॥
भावार्थ:-बिजली की सी कांति वाली चन्द्रमुखी, हरिन के बच्चे के से नेत्र वाली और अपने सुंदर रूप से कामदेव की स्त्री रति केअभिमान को छुड़ाने वाली सुहागिनी स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार सजकर, जहाँ-तहाँ झुंड की झुंड मिलकर,॥1॥
* गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनि कल रव कलकंठि लजानीं॥
भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥2॥
भावार्थ:-मनोहर वाणी से मंगल गीत गा रही हैं, जिनके सुंदर स्वर को सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल का वर्णनकैसे किया जाए, जहाँ विश्व को विमोहित करने वाला मंडप बनाया गया है॥2॥

* मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥3॥
भावार्थ:-अनेकों प्रकार के मनोहर मांगलिक पदार्थ शोभित हो रहे हैं और बहुत से नगाड़े बज रहे हैं। कहीं भाट विरुदावली(कुलकीर्ति) का उच्चारण कर रहे हैं और कहीं ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं॥3॥


* गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥4॥
भावार्थ:-सुंदरी स्त्रियाँ श्री रामजी और श्री सीताजी का नाम ले-लेकर मंगलगीत गा रही हैं। उत्साह बहुत है और महल अत्यन्तही छोटा है। इससे (उसमें न समाकर) मानो वह उत्साह (आनंद) चारों ओर उमड़ चला है॥4॥
दोहा :
* सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297॥
भावार्थ:-दशरथ के महल की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि रामचन्द्रजी नेअवतार लिया है॥297

चौपाई :
* भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गयस्यंदन साजहु जाई॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥1॥
भावार्थ:-फिर राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी कीबारात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनंदवश पुलक से भर गए॥1॥

* भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥2॥
भावार्थ:-भरतजी ने सब साहनी (घुड़साल के अध्यक्ष) बुलाए और उन्हें (घोड़ों को सजाने की) आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठदौड़े। उन्होंने रुचि के साथ (यथायोग्य) जीनें कसकर घोड़े सजाए। रंग-रंग के उत्तम घोड़े शोभित हो गए॥2॥

* सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥3॥
भावार्थ:-सब घोड़े बड़े ही सुंदर और चंचल करनी (चाल) के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहे पर रखतेहों। अनेकों जाति के घोड़े हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। (ऐसी तेज चाल के हैं) मानो हवा का निरादर करके उड़ना चाहतेहैं॥3॥

* तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥4॥
भावार्थ:-उन सब घोड़ों पर भरतजी के समान अवस्था वाले सब छैल-छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुंदर हैं और सबआभूषण धारण किए हुए हैं। उनके हाथों में बाण और धनुष हैं तथा कमर में भारी तरकस बँधे हैं॥4॥

दोहा :
* छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥
भावार्थ:-सभी चुने हुए छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवारचलाने की कला में बड़े निपुण हैं॥298॥


ü  कविजी  स्वयं स्वीकार  कर्ते है कि !श्री राम दरवार कोहि बयान नहि कर सक्ते है ।।
ü  रती को भी माथ कर्ने वाला प्रस्तुती , काम देव को पराजय दिलाने वाला शोभा ।
ü  विश्व को विमोहित करने वाला मंडप , गीत मे उत्कृष्ट कोयल , श्रिङ्गारमे उत्कृष्ट रती को उदाहरण प्रस्तुत करके गो स्वामिजिने
ü  इश्वरीय आशिर्वादको प्रभाव दर्शाया ।
ü  जङलमे हाइ मंगल् हो सक्ता है तो दरवारमे माङलिकता क्यु नहि होगा :
ü  माङलिक लक्षण : नगाड़े बज रहे हैं,  भाट विरुदावली (कुलकीर्ति) का उच्चारण , ब्राह्मण वेदध्वनि श्री सीताजी का नाम ,  हैं॥

ü  प्राचीन समय से हाति और घोडे मनुस्यके दोस्त और सवारी साधन बन्ते आया है।


ü  जो शाहाकारी थे उनको इस्तमाल किया ।

ü  बारात का विवरण दिया गया है ।

लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताओगे,प्राण जाहि जब छूट ॥

अर्थ : कबीर दस जी कहते हैं कि अभी राम नाम की लूट मची है , अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तोसमय निकल जाने पर, अर्थात मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान् की पूजा क्यों नहीं की ।


माँ सती ने पार्वती के रूप में राजा हिमालय के घर जन्म लिया  पार्वती चाहती थी कि उनका विवाह भगवान् शिव से होजिसके लिया उन्होंने कठिन तपस्या प्रारंभ की हज़ारों सालों की तपस्या के बाद भी वो भगवान् शिव के तप को न तो भंग करसकी अपितु भगवन शिव प्रसन्न ही हुए

तब भगवान् विष्णु ने कामदेव को पार्वती जी की सहायता  के लिए भेजा, और कामदेव ने बसंत ऋतू के आगमन पर शिव जीके ऊपर पुष्प बाण चलाया जिससे भगवान् शिव जी की तपस्या भंग हो गई, पर भगवान् शिव ने अपनी तपस्या भंग करने केलिए कामदेव को तत्क्षण तीसरी आँख खोल कर भस्म कर दिया! पर जब शिव जी ने पार्वती जी को देखा तो उन्हें अपनी पत्नीके रूप में स्वीकार कर लिया !
इस आधार पर होली की आग में वासनात्मक आग की आहुति देकर सच्चे प्रेम की विजय के रूप में आज भी होली का पर्वमनाया  जाता हैं !
रति और कामदेव की कहानी - इस कथा के अनुसार के अनुसार रति जो की कामदेव की पत्नी थी, कामदेव के भस्म हो जाने परविलाप करने लगी! वह भगवान् शिव से अपने पति के पुनर जीवन के लिए प्रार्थना करने लगी ! वह भगवान् शिव को मनाने मेंलग गई की कामदेव ने जो भी किया वह भगवान् विष्णु के कहने पर लोक कल्याण के किया! तब सभी रति तथा भगवान्विष्णु, ब्रह्मा जी आदि देवों के परम आग्रह पर उन्होंने कामदेव को पुनर्जीवित कर जीवन प्रदान किया!

दया धर्म का मूल  है पाप मूल अभिमान |
तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण ||

अर्थ: गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि मनुष्य को दया कभी नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि दया ही धर्म का मूल है और इसकेविपरीत अहंकार समस्त पापों की जड़ होता है|



“अगर हमारी किस्मत मै जितना लिखा होगा तो हम जितेगे,
लेकिन हम हारने तक हार नहीं मानेंगे।”- Hindi Gyan

Gita and Cast System
Lord Krishna speaks to Arjuna as he clarifies the origin and purpose of the caste system in sanaatana dharma (Bhagavad Gita, Chapter 4, Shloka 13).
cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ guṇakarmavibhāgaśaḥ .
tasya kartāramapi māṃ viddhyakartāramavyayam .. 4\-13..
According to the three modes of material nature and the work ascribed to them, the four divisions of human society were created by Me. And, although I am the creator of this system, you should know that I am yet the non-doer, being unchangeable.

chaaturvarnyam shloka
The four-fold order was created by Me according to the divisions of quality and work. Though I am its creator, know Me to be incapable of action or change.
Cāturvarṇyaṃ: the four-fold order. The four varnas are named - Brahmin, Kshatriya, Vaishya and Shudra. They constitute the four-fold order. The three gunas - sattva, rajas and tamas - and the law of karma - these four elements were divided by Me to create the four varnas.
Sattva guna predominates in Brahmins - and they are assigned the tasks (karma) of sham, dam, tapas (meditation) etc.
Rajas guna predominates in Kshatriyas - sattva guna is secondary. Their karma is to be warriors and show bravery and tejas.
Rajas guna also predominates in Vaishyas - tamas guna is secondary. Their karma is to be farmers and traders.
Tamas guna predominates in Vaishyas - rajas guna is secondary. Their karma is to serve others.
The emphasis is on guna (aptitude) and karma (function) and not on jaati (birth). The varna or the order to which we belong is independent of sex, birth or breeding. A varna is determined by temperament and vocation - not by birth or heredity.
According to the Mahabharata, the whole world was originally of one class but later it became divided into four divisions on account of the specific duties.
chaaturvarnyam shloka
ekavarṇama idama pūrvaṃ viśvama āsida yudhiśthira         karmakriyāviśesena caturvarṇyama pratiśthitama

Even the distinction between caste and outcaste is artificial and unspiritual. An ancient verse points out that the Brahmin and the outcaste are blood brothers.
chaaturvarnyam shloka
antyajo viprajātiśa ca eka eva sahodaraḥ ekayoniprasūtas ca ekasākhena jāyate
In the Mahabharata, Yudhishthira says that it is difficult to find out the cast of persons on account of the mixture of castes. Men beget offspring in all sorts of women. So conduct is the only determining feature of caste according to the sages.

The four-fold order is designed for human evolution. There is nothing absolute about the case system which has changed its character in the process of history. Today it cannot be regarded as anything more than an insistence on a variety of ways in which the social purpose can be carried out. Functional groupings will never be out of date. As for marriages - they will happen among those who belong to more or less the same stage of cultural development. The present morbid condition of India broken into castes and sub-castes is opposed to the unity taught by the Gita, which stands for an organic as opposed to an atomistic conception of society.
Akartāram: non-doer. As the Supreme is unattached, He is said to be a non-doer. Works do not affect His changeless being, though He is the unseen background of all works.
Source (in part): Bhagavad Gita with commentary by Shankaracharya (in Hindi), Gita Press.
The essence of Hinduism can be found in the Bhagavad Gita. The seminal interpretation of the Gita was provided by Shankaracharya and the core principles taught by him include the process of obtaining liberation or moksha by:

ü  purifying the heart
ü  developing true detachment
ü  distinguishing between maya and gyana
ü  realizing the truth
ü  obtaining nivritti and, finally, sanyaasa